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महिला मंडल कवर्धा की बहनों ने भोरमदेव आश्रम में मनाई आंवला नवमी

महिला मंडल कवर्धा की बहनों ने भोरमदेव आश्रम में मनाई आंवला नवमी।

कवर्धा। कार्तिक शुक्ल नवमी (12 नवम्बर 2021) शुक्रवार को नवमी आँवला(अक्षय) था। अक्षय नवमी को जप, दान, तर्पण, स्नानादि का अक्षय फल होता है। इस दिन आँवले के वृक्ष के पूजन का विशेष महत्व है।

भारतीय सनातन पद्धति में पुत्र रत्न की प्राप्ति के लिए महिलाओं द्वारा आँवला नवमी की पूजा को महत्वपूर्ण माना गया है। कहा जाता है कि यह पूजा व्यक्ति के समस्त पापों को दूर कर पुण्य फलदायी होती है। जिसके चलते कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की नवमी को महिलाएं आँवले के पेड़ की विधि-विधान से पूजा-अर्चना कर अपनी समस्त मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए प्रार्थना करती हैं।
आँवला नवमी को अक्षय नवमी के रूप में भी जाना जाता है। इस दिन द्वापर युग का प्रारंभ हुआ था। कहा जाता है कि आंवला भगवान विष्णु का पसंदीदा फल है। आंवले के वृक्ष में समस्त देवी-देवताओं का निवास होता है। इसलिए इसकी पूजा करने का विशेष महत्व होता है।
इस मौके पर पूज्य संत श्री आसाराम जी बापू के द्वारा प्रेरित महिला मंडल कवर्धा के बहनों के द्वारा आंवला नवमी के दिन महिलाएं सुबह से ही स्नान ध्यान कर आँवला के वृक्ष के नीचे पूर्व दिशा में मुंह करके बैठी।
इसके बाद वृक्ष की जड़ों को दूध से सींच कर उसके तने पर कच्चे सूत का धागा लपेटा गया।
तत्पश्चात रोली, चावल, धूप दीप से वृक्ष की पूजा की गई।
सभी महिलाएं आँवले के वृक्ष की १०८ परिक्रमाएं करके ही आंवला वृक्ष के नीचे भोजन प्रसादी ग्रहण किए।


आँवला नवमी की कथा
वहीं पुत्र रत्न प्राप्ति के लिए आँवला पूजा के महत्व के विषय में प्रचलित कथा के अनुसार एक युग में किसी वैश्य की पत्नी को पुत्र रत्न की प्राप्ति नहीं हो रही थी। अपनी पड़ोसन के कहे अनुसार उसने एक बच्चे की बलि भैरव देव को दे दी। इसका फल उसे उल्टा मिला। महिला कुष्ट की रोगी हो गई।
इसका वह पश्चाताप करने लगे और रोग मुक्त होने के लिए गंगा की शरण में गई। तब गंगा ने उसे कार्तिक शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को आँवला के वृक्ष की पूजा कर आँवले के सेवन करने की सलाह दी थी।
जिस पर महिला ने गंगा के बताए अनुसार इस तिथि को आँवला की पूजा कर आँवला ग्रहण किया था, और वह रोगमुक्त हो गई थी। इस व्रत व पूजन के प्रभाव से कुछ दिनों बाद उसे दिव्य शरीर व पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई, तभी से हिंदुओं में इस व्रत को करने का प्रचलन बढ़ा। तब से लेकर आज तक यह परंपरा चली आ रही है।

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