INDIARaipur

आदिवासी समाज से ऐतिहासिक महापुरूष, तिलका मांझी ने 1857 की क्रांति से लगभग सौ साल पहले फूंकी थी बिगुल…

रायपुर। देशभर में विश्व आदिवासी दिवस मनाया जा रहा है. आज आदिवासियों की हक की बात कही जा रही है. उनकी लड़ाइयों को याद किया जा रहा है, लेकिन इतिहास के पन्नों में आदिवासियों के संघर्षों को कम स्थान मिला है. देश में आजादी की पहली क्रांति 1857 को माना जाता है. लेकिन इससे पहले ही झारखंड में अंग्रेजों के खिलाफ कई विद्रोह हो चुके थे. इन विद्रोहों को संथाल विद्रोह, चुआड़ विद्रोह जैसे नामों से जाना जाता है. तिलका माझी ने अंग्रेजों से आजादी के लिए विद्रोह का बिगुल फूंका था. अंग्रेजों के खिलाफ जंग छेड़ने वाला शख्स भी एक आदिवासी था. जबरा या जौराह पहाड़िया उर्फ तिलका मांझी को भारत के औपनिवेशिक युद्धों के इतिहास में पहला आदिविद्रोही होने का श्रेय जाता है.

तिलका मांझी ने आदिवासियों द्वारा किये गए प्रसिद्ध ‘आदिवासी विद्रोह’ का नेतृत्व किया. वर्ष 1771 से 1784 तक अंग्रेजों से लंबी लड़ाई लड़ी और वर्ष 1778 में पहाड़िया सरदारों के साथ मिलकर रामगढ़ कैंप को अंग्रेजों से मुक्त कराया. तिलका मांझी भारत के प्रथम स्वतंत्रता सेनानी थे 1857 की क्रांति से लगभग सौ साल पहले स्वाधीनता का बिगुल फूंकने वाले तिलका मांझी को इतिहास में खास तवज्जो नहीं दी गई.

भारत में ब्रिटिश सत्ता को चुनौती देने वाले पहाड़िया समुदाय के वीर आदिवासी तिलका मांझी के बारे में कहा जाता है कि सिंगारसी पहाड़, पाकुड़ में उनका जन्म 11 फरवरी 1750 में हुआ. 1771 से 1784 तक उन्होंने ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध लंबी और कभी न समर्पण करने वाली लड़ाई लड़ी. इस दौरान उन्होंने स्थानीय महाजनों-सामंतों व अंग्रेजी शासन की नींद उड़ा रखी थी. पहाड़िया लड़ाकों में सरदार रमना अहाड़ी और अमड़ापाड़ा प्रखंड (पाकुड़, संताल परगना) के आमगाछी पहाड़ निवासी करिया पुजहर और सिंगारसी पहाड़ निवासी जबरा पहाड़िया को भारत का आदिविद्रोही माना जाता है.

तिलका मांझी ने 1784 में राजमहल के मजिस्ट्रेट क्लीवलैंड को मार डाला. इसके बाद आयरकुट के नेतृत्व में तिलका मांझी की गुरिल्ला सेना पर जबरदस्त हमला हुआ. इस हमले में उनके कई लड़ाके मारे गए. कहते हैं कि तिलका मांझी को अंग्रेज चार घोड़ों में एक साथ बांधकर घसीटते हुए भागलपुर लाए. मीलों घसीटे जाने की वजह से उनका पूरा शरीर खून से लथपथ हो गया था. लेकिन अंग्रेजों के खिलाफ उनका क्रोध कम नहीं हुआ था. 13 जनवरी 1785 को भागलपुर के चौराहे पर स्थित एक विशाल वटवृक्ष में लटकाकर अंग्रेजों ने उन्हें फांसी दे दी. हजारों लोगों के सामने तिलका मांझी हंसते-हंसते फांसी पर झूल गए.

पहाड़िया समुदाय का यह गुरिल्ला लड़ाका एक ऐसी किंवदंती है, जिसके बारे में ऐतिहासिक दस्तावेज सिर्फ नाम भर का उल्लेख करते हैं. पूरा विवरण नहीं देते. वहीं, पहाड़िया समुदाय के पुरखा गीतों और कहानियों में इसकी छापामार जीवनी और कहानियां सदियों बाद भी उसके आदिविद्रोही होने का अकाट्य दावा पेश करती हैं. इतिहास के इस महानायक का कोई चित्र भारत के किसी इतिहास में उपलब्ध नहीं है.

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button

You cannot copy content of this page