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महात्मा ज्योतिबा फुले और सावित्री फुले ही सच्चे शिक्षक रहें औरों ने झूठ के आडंबर गढ़े : शिक्षक दिवस पर विशेष – विप्लव साहू

महात्मा ज्योतिबा फुले और सावित्री फुले ही सच्चे शिक्षक रहें औरों ने झूठ के आडंबर गढ़े : शिक्षक दिवस पर विशेष

बाल या विधवा-विवाह जैसी कुरीतियों पर आवाज उठाने वाली देश की पहली महिला शिक्षिका को जानते हैं? ये थीं महाराष्ट्र में जन्मीं सावित्री बाई फुले जिन्होंने अपने पति दलित चिंतक समाज सुधारक ज्योति राव फुले से पढ़कर सामाजिक चेतना फैलाई. उन्होंने अंधविश्वास और रूढ़ियों की बेड़ियां तोड़ने के लिए लंबा संघर्ष किया. आइए जानें सावित्री बाई फुले के जीवन के बारे में कि किस तरह उन्होंने अपने संघर्ष से मंजिल पाई.

सावित्रीबाई फुले जनवरी 1831 में महाराष्ट्र के सतारा जिले में स्थ‍ित नायगांव नामक छोटे से गांव में पैदा हुई थीं. महज 9 साल की छोटी उम्र में पूना के रहने वाले ज्योतिबा फुले के साथ उनकी शादी हो गई. विवाह के समय सावित्री बाई फुले पूरी तरह अनपढ़ थीं, तो वहीं उनके पति तीसरी कक्षा तक पढ़े थे. जिस दौर में वो पढ़ने का सपना देख रही थीं, तब दलितों के साथ बहुत भेदभाव होता था. उस वक्त की एक घटना के अनुसार एक दिन सावित्री अंग्रेजी की किसी किताब के पन्ने पलट रही थीं, तभी उनके पिताजी ने देख लिया. वो दौड़कर आए और किताब हाथ से छीनकर घर से बाहर फेंक दी. इसके पीछे ये वजह बताई कि शिक्षा का हक़ केवल उच्च जाति के पुरुषों को ही है, दलित और महिलाओं को शिक्षा ग्रहण करना पाप था. बस उसी दिन वो किताब वापस लाकर प्रण कर बैठीं कि कुछ भी हो जाए वो एक न एक दिन पढ़ना जरूर सीखेंगी.

वही लगन थी कि एक दिन उन्होंने खुद पढ़कर अपने पति ज्योतिबा राव फुले के साथ मिलकर लड़कियों के लिए 18 स्कूल खोले. बता दें, साल 1848 में महाराष्ट्र के पुणे में देश का सबसे पहले बालिका स्कूल की स्थापना की थी. वहीं, अठारहवां स्कूल भी पुणे में ही खोला गया था. उन्‍होंने 28 जनवरी, 1853 को गर्भवती बलात्‍कार पीड़ितों के लिए बाल हत्‍या प्रतिबंधक गृह की स्‍थापना की.

स्कूल के लिए निकलीं तो खाए पत्थर

बताते हैं कि ये वो दौर था कि सावित्रीबाई फुले स्कूल जाती थीं, तो लोग पत्थर मारते थे. उन पर गंदगी फेंक देते थे. सावित्रीबाई ने उस दौर में लड़कियों के लिए स्कूल खोला जब बालिकाओं को पढ़ाना-लिखाना सही नहीं माना जाता था. सावित्रीबाई फुले एक कवियत्री भी थीं. उन्हें मराठी की आदिकवियत्री के रूप में भी जाना जाता था.

कुरीतियों के खिलाफ उठाई आवाज

सावित्रीबाई ने 19वीं सदी में छुआ-छूत, सतीप्रथा, बाल-विवाह और विधवा विवाह निषेध जैसी कुरीतियों के विरुद्ध अपने पति के साथ मिलकर काम किया. सावित्रीबाई ने आत्महत्या करने जाती हुई एक विधवा ब्राह्मण महिला काशीबाई की अपने घर में डिलीवरी करवा उसके बच्चे यशंवत को अपने दत्तक पुत्र के रूप में गोद लिया. दत्तक पुत्र यशवंत राव को पाल-पोसकर इन्होंने डॉक्टर बनाया.

ब्राह्मणवादी ग्रंथों को फेंकने की बात करती थीं

सावित्रीबाई फुले के पति ज्‍योतिराव फुले की मृत्यु सन् 1890 में हुई थी, तब सावित्रीबाई ने उनके अधूरे कामों को पूरा करने के लिए संकल्प लिया था. उसके बाद सावित्रीबाई की मृत्यु 10 मार्च, 1897 को प्लेग के मरीजों की देखभाल करने के दौरान हुई. उनका पूरा जीवन समाज के वंचित तबके खासकर महिलाओं और दलितों के अधिकारों के लिए संघर्ष में बीता. उनकी एक बहुत ही प्रसिद्ध कविता है जिसमें वह सबको पढ़ने- लिखने की प्रेरणा देकर जाति तोड़ने और ब्राह्मणवादी ग्रंथों को फेंकने की बात करती थीं.

उनकी शिक्षा पर लिखी मराठी कविता का हिंदी अनुवाद पढ़ें

जाओ जाकर पढ़ो-लिखो, बनो आत्मनिर्भर, बनो मेहनती

काम करो-ज्ञान और धन इकट्ठा करो

ज्ञान के बिना सब खो जाता है, ज्ञान के बिना हम जानवर बन जाते हैं

इसलिए, खाली ना बैठो,जाओ, जाकर शिक्षा लो

दमितों और त्याग दिए गयों के दुखों का अंत करो, तुम्हारे पास सीखने का सुनहरा मौका है

इसलिए सीखो और जाति के बंधन तोड़ दो, ब्राह्मणों के ग्रंथ जल्दी से जल्दी फेंक दो

सत्यशोधक समाज की स्थापना की

सावित्रीबाई फुले और ज्योतिबा ने 24 सितंबर, 1873 को सत्यशोधक समाज की स्थापना की. उन्होंने विधवा विवाह की परंपरा भी शुरू की और इस संस्था के द्वारा पहला विधवा पुनर्विवाह 25 दिसम्बर 1873 को कराया गया. 28 नवंबर 1890 को बीमारी के चलते ज्योतिबा की मृत्यु हो गई थी. ज्योतिबा के निधन के बाद सत्यशोधक समाज की जिम्मेदारी सावित्रीबाई फुले पर आ गई. उन्होंने जिम्मेदारी से इसका संचालन किया. सावित्रीबाई एक निपुण कवियित्री भी थीं. उन्हें आधुनिक मराठी काव्य की अग्रदूत भी माना जाता है. वे अपनी कविताओं और लेखों में हमेशा सामाजिक चेतना की बात करती थीं. सावित्री बाई फुले इस देश की पहली महिला शिक्षिका होने के साथ साथ अपना पूरा जीवन समाज के वंचित तबके खासकर स्त्री और दलितों के अधिकारों के लिए संघर्ष में देने के लिए हमेशा याद की जाएंगी.

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